राजनैतिक >> दिल्ली दरवाजा दिल्ली दरवाजाराजेन्द्र अवस्थी
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प्रख्यात कथाकार राजेन्द्र अवस्थी का एक राजनीतिक उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘दिल्ली दरवाजा’ प्रख्यात कथाकार राजेन्द्र
अवस्थी का राजनीतिक उपन्यास है। इसमें आज की राजनीति और व्यवस्था का बहुत
ही सजीव चित्रण है। बाज बहादुर और रानी रूपमती की प्रणय-कथा के केन्द्र–मांडू को
कौन नहीं जानता ? इस उपन्यास में उसी इतिहास-प्रसिद्ध मांडू को आज की राजनीति
से जोड़ा गया है। जिस प्रकार मांडू के इतिहास ने कई करवटें लीं, उसी
प्रकार वहाँ विश्राम करने आए एक पूर्व विदेश मंत्री की किस्मत ने भी पलटा
खाया और वह देखते-दखते प्रधानमंत्री-पद के दावेदार की शक्ल में उभर कर
सामने आया।
अपने पाठक को शुरू से अंत तक बांधे रखता है यह उपन्यास। तमाम घटनाक्रम इस
तरह बदलते हैं कि रोमांच हो उठता है। चुस्त और सरल भाषा ने इसे और भी
पठनीय बना दिया है।
दिल्ली दरवाज़ा
सारी रात वह सो नहीं सकी। लगातार करवटें
बदलते हुए समझ में
नहीं आ रहा था, हुआ क्या ? नींद किसने छीन ली है ? कहां नींद उड़ गई है।
नींद के भी पंख होते हैं।
हां, शायद। वह उठ बैठी और सामने देखने लगी। बाहर का मौसम बदला हुआ था। सूना आकाश था। सफेद और मटमैले बादल धुएं की तरह उड़कर आगे खिसक रहे थे। अचानक कुछ हुआ होगा, उसने सोचा; सामने का विस्तार गीला था। रिमझिम वर्षा हो रही थी।
उसने घड़ी देखी, सुबह के चार बजे थे। बिस्तर में करवट बदलने से बेहतर है, ठंडी हवाओं के बीच सामने फैली-झील को देखना। खिरनी के भारी वृक्ष गुत्थम-गुत्था होते हुए झील को चूनर ओढ़े चेहरे की तरह पारदर्शी बना रहे थे। पानी हवा के साथ आलिंगन-बद्ध लहलहाता। काई बालों के जाल-सी।
सब चुप हैं। सूरज का पता नहीं। तब भी धीरे-धीरे सब साफ हो रहा था। अब उसे दूर लगे खुरासानी के वृक्ष भी दिखने लगे थे और बाईं ओर फूला गुलमोहर।
झील के किनारे से पीले और लाल रंग के कपड़े पहने एक युवती सामने आ रही थी। फिर दो बैलों को फांसे, हल सरकाता, गन्दे कपड़े पहने एक अधेड़, कुछ थम गया था। पैर उठाकर उसने हाथ रखे, शायद कांटा चुभा हो, फिर आगे बढ़ गया।
वह कमरे में चहलकदमी करने लगी। लेकिन नजरें उसकी खिरनी की डालों में उलझी थीं। दो गन्दे लड़के एक देहाती कुत्ते को साथ लिए जा रहे थे।
वे चुप नहीं थे, कुछ बातें कर रहे थे। वे क्या, शायद कुत्ता भी कुछ बात कर रहा था, लेकिन उसके पास केवल प्रतिध्वनियां आ रही थीं।
हां, प्रतिध्वनियां ही तो।
कल शाम वह अकेले ड्राइवर और एक गाइड को लेकर निकल पड़ी थी।
गाइड अपनी रटी हुई भाषा में बोल रहा है–‘‘बाबाजी, हलका-सा पानी गिर जाए तो यहां के नजारे बदल जाएं। बादशाह जहांगीर कहता था, ‘बरसात में मांडू की तरह खूबसूरत दूसरी जगह नहीं है।’ दो हजार फुट की ऊंचाई पर बसा है यह और तीन ओर से गहरी खाइयों से घिरा है। काकराकोट–हां, काकराकोट ही तो कहते हैं। दूध की तरह झुए झरने और पहाड़ियों पर मलमल-सी बिखरी बीर बहूटियां। बीबी जी, एक दर्जन झीलें हैं यहां। पहाड़ी के नीचे निमाड़ का मैदान थाली-सा फैला है। कभी यहां सिंहों की थर्राती गर्जना होती थी। चीते, शेर, भालू और सियारों की तो गिनती नहीं। शिकारियों ने सब चौपट कर दिया।’’
उसने जोर की सांस ली–शिकारियों ने ! अपने पापा की याद हो आई–श्याम बाबू ! वह घूमने निकली थी तो श्यामबाबू सो रहे थे। उनका नाम शिकारियों के संदर्भ में कैसे आया ?
गाइड से पूछा उसने, ‘‘शिकारी कैसे होते हैं, कमलू ?’’
‘‘बस बीबी जी, खूंख्वार !’’
‘‘खूंख्वार, हां तो। जंगली जानवरों से ज्यादा।’’
‘‘कैसे भला ?’’
‘‘जंगली जानवरों को जो मार सकेगा वह खूंख्वार नहीं होगा तो क्या ? अपनी ताकत के बल पर पवन-सुत-सा झपट पड़ता है। फिर पीछे भागता है....’’
‘‘हां, भागना तो होगा ही !’’
‘‘नहीं भागेगा तो जानवर कैसे पकड़ा जाएगा ? भागता है तो थकता है और थकता है तो फिर दिन-रात सोता भी है !’’
‘‘ठीक है, ठीक है,’’ उसने कहा, ‘‘पापा इसीलिए अभी भी सो रहे हैं। लौटकर जाऊं तो भी शायद सोते मिलें।’’ वह रूपमती के खंडहर के सबसे ऊपरी हिस्से में पहुंच गई।
गाइड नीचे ही था, इसलिए वह अपने ढंग से सब कुछ देख सकती थी। एक आवाज गूंजी–‘‘रूपाली !’’
‘‘हां, यहां हूं, मैं रूपाली ! कहां थे तुम ?’’
आवाज दोबारा नहीं आई। चारों ओर उसने देखा, उसका नाम किसी ने नहीं लिया फिर।
‘आवाज पहचानी-सी है, कैसे आ गई यहां तक !’ यह सोचते-सोचते वह किनारे के मुंडेर तक पहुंच गई। दूर सामने सीधे पूरब-पश्चिम नर्मदा की धार दिखाई देती है।....इत्ती दूर से नर्मदा !
‘‘बीबी जी, नर्मदा के दर्शन किए बिना रूपमती भोजन नहीं करती थी। नर्मदा उसे दिखे इसीलिए यह बर्ज बनाया गया था।’’ गाइड ने कहा था, ‘‘पहले भी यह, गजब की खूबसूरत थी। कमल के फूल से ही उसकी तुलना हो सकती है।’’
‘‘हां होगी, जरूर, तभी यहां कमल के फूल सारी झीलें में लगे हैं।’’
वह बुर्ज के नीचे ही बैठ गई। अपलक सामने देखती रही। उसने फिर अपने आप गुनगुनाना शुरू कर दिया–
हां, शायद। वह उठ बैठी और सामने देखने लगी। बाहर का मौसम बदला हुआ था। सूना आकाश था। सफेद और मटमैले बादल धुएं की तरह उड़कर आगे खिसक रहे थे। अचानक कुछ हुआ होगा, उसने सोचा; सामने का विस्तार गीला था। रिमझिम वर्षा हो रही थी।
उसने घड़ी देखी, सुबह के चार बजे थे। बिस्तर में करवट बदलने से बेहतर है, ठंडी हवाओं के बीच सामने फैली-झील को देखना। खिरनी के भारी वृक्ष गुत्थम-गुत्था होते हुए झील को चूनर ओढ़े चेहरे की तरह पारदर्शी बना रहे थे। पानी हवा के साथ आलिंगन-बद्ध लहलहाता। काई बालों के जाल-सी।
सब चुप हैं। सूरज का पता नहीं। तब भी धीरे-धीरे सब साफ हो रहा था। अब उसे दूर लगे खुरासानी के वृक्ष भी दिखने लगे थे और बाईं ओर फूला गुलमोहर।
झील के किनारे से पीले और लाल रंग के कपड़े पहने एक युवती सामने आ रही थी। फिर दो बैलों को फांसे, हल सरकाता, गन्दे कपड़े पहने एक अधेड़, कुछ थम गया था। पैर उठाकर उसने हाथ रखे, शायद कांटा चुभा हो, फिर आगे बढ़ गया।
वह कमरे में चहलकदमी करने लगी। लेकिन नजरें उसकी खिरनी की डालों में उलझी थीं। दो गन्दे लड़के एक देहाती कुत्ते को साथ लिए जा रहे थे।
वे चुप नहीं थे, कुछ बातें कर रहे थे। वे क्या, शायद कुत्ता भी कुछ बात कर रहा था, लेकिन उसके पास केवल प्रतिध्वनियां आ रही थीं।
हां, प्रतिध्वनियां ही तो।
कल शाम वह अकेले ड्राइवर और एक गाइड को लेकर निकल पड़ी थी।
गाइड अपनी रटी हुई भाषा में बोल रहा है–‘‘बाबाजी, हलका-सा पानी गिर जाए तो यहां के नजारे बदल जाएं। बादशाह जहांगीर कहता था, ‘बरसात में मांडू की तरह खूबसूरत दूसरी जगह नहीं है।’ दो हजार फुट की ऊंचाई पर बसा है यह और तीन ओर से गहरी खाइयों से घिरा है। काकराकोट–हां, काकराकोट ही तो कहते हैं। दूध की तरह झुए झरने और पहाड़ियों पर मलमल-सी बिखरी बीर बहूटियां। बीबी जी, एक दर्जन झीलें हैं यहां। पहाड़ी के नीचे निमाड़ का मैदान थाली-सा फैला है। कभी यहां सिंहों की थर्राती गर्जना होती थी। चीते, शेर, भालू और सियारों की तो गिनती नहीं। शिकारियों ने सब चौपट कर दिया।’’
उसने जोर की सांस ली–शिकारियों ने ! अपने पापा की याद हो आई–श्याम बाबू ! वह घूमने निकली थी तो श्यामबाबू सो रहे थे। उनका नाम शिकारियों के संदर्भ में कैसे आया ?
गाइड से पूछा उसने, ‘‘शिकारी कैसे होते हैं, कमलू ?’’
‘‘बस बीबी जी, खूंख्वार !’’
‘‘खूंख्वार, हां तो। जंगली जानवरों से ज्यादा।’’
‘‘कैसे भला ?’’
‘‘जंगली जानवरों को जो मार सकेगा वह खूंख्वार नहीं होगा तो क्या ? अपनी ताकत के बल पर पवन-सुत-सा झपट पड़ता है। फिर पीछे भागता है....’’
‘‘हां, भागना तो होगा ही !’’
‘‘नहीं भागेगा तो जानवर कैसे पकड़ा जाएगा ? भागता है तो थकता है और थकता है तो फिर दिन-रात सोता भी है !’’
‘‘ठीक है, ठीक है,’’ उसने कहा, ‘‘पापा इसीलिए अभी भी सो रहे हैं। लौटकर जाऊं तो भी शायद सोते मिलें।’’ वह रूपमती के खंडहर के सबसे ऊपरी हिस्से में पहुंच गई।
गाइड नीचे ही था, इसलिए वह अपने ढंग से सब कुछ देख सकती थी। एक आवाज गूंजी–‘‘रूपाली !’’
‘‘हां, यहां हूं, मैं रूपाली ! कहां थे तुम ?’’
आवाज दोबारा नहीं आई। चारों ओर उसने देखा, उसका नाम किसी ने नहीं लिया फिर।
‘आवाज पहचानी-सी है, कैसे आ गई यहां तक !’ यह सोचते-सोचते वह किनारे के मुंडेर तक पहुंच गई। दूर सामने सीधे पूरब-पश्चिम नर्मदा की धार दिखाई देती है।....इत्ती दूर से नर्मदा !
‘‘बीबी जी, नर्मदा के दर्शन किए बिना रूपमती भोजन नहीं करती थी। नर्मदा उसे दिखे इसीलिए यह बर्ज बनाया गया था।’’ गाइड ने कहा था, ‘‘पहले भी यह, गजब की खूबसूरत थी। कमल के फूल से ही उसकी तुलना हो सकती है।’’
‘‘हां होगी, जरूर, तभी यहां कमल के फूल सारी झीलें में लगे हैं।’’
वह बुर्ज के नीचे ही बैठ गई। अपलक सामने देखती रही। उसने फिर अपने आप गुनगुनाना शुरू कर दिया–
तुम बिन जियरा दुःखत है
मांगत है सुखराज
रूपमती दुःखिया भई
बिना बहादुर बाज !
मांगत है सुखराज
रूपमती दुःखिया भई
बिना बहादुर बाज !
‘बिना बाज बहादुर के रूपमती नहीं
रही।....सो क्यों ?’
‘हो सकता है...’ अचानक उसे अपने पापा की याद आ गई। श्याम बाबू अब भी सो रहे होंगे या करवटें बदल रहे होंगे !
सुन्दर चेहरों का एक सिलसिला उसके सामने से घूम गया–एक से एक खूबसूरत कमसिनें। तब वह बच्ची थी, अक्सर बस्ता लिए एम्बेसेडर कार में स्कूल जाती थी। एक के बाद एक कितनी खूबसूरत लड़कियां मिली थीं बंगले के द्वार तक पहुंचते-पहुंचते। सब मुस्कुराकर उसकी ओर देखतीं। कोई उसके सिर पर हाथ फेर देती। वह बिना कुछ कहे आगे बढ़ जाती। उसे मालूम है, पापा का दरबार लगेगा अभी से और आधी रात गए तक; पापा को फुर्सत नहीं मिलेगी।
वह नीचे उतर आई।
गाइड के साथ बाजबहादुर के महल की ओर कार चल पड़ी।
‘‘बीबी जी,’’ गाइड ने बताया, ‘‘कल्याण राग में जब रूपमती गाती थी तो बाज बहादुर भूप राग छेड़ देता था। रागों की दुनिया भी अजीब है। आगे चलकर जब रूप और बाज एक हुए तो दोनों का राग ही बदल गया। एक नया राग बना–भूप कल्याण राग।’’
‘‘अजीब नहीं, रागों से मिलकर पूरी देह की शिराएं तार-तार हो जाती हैं ! समझे !’’ रूपाली ने सांप की तरह अपनी पूरी देह मरोड़ते हुए कहा।
‘‘होती होंगी, बीबी जी !’’
‘‘होती होंगी नहीं, होती हैं। मुझे भी संगीत का शौक है !’’
‘‘क्या गाती हैं आप ?’’
‘‘राग यमन।’’
‘‘वाह बीबी जी, कमाल की हैं आप, तभी तो मैं सोच रहा था कि इन वीरान पत्थरों में इतनी गहरी डूब कैसे गई हैं आप !’’
‘‘रूपमती कहां की थी, कमलू ?’’
‘‘बहुत दूर नहीं है यहां से वह जगह। बड़ी दुःखियारी थी बेचारी। चंदेरी के जमींदार मान से रूपमती की शादी हुई थी ’’
‘‘शादी हुई थी ?’’
‘‘हां बीबी जी, ज्यादा दिन शादी नहीं चल सकी !’’
‘‘क्या हुआ ?’’
‘‘हम गरीब आदमी क्या जानें। राजा-महाराजाओं के यहां क्या होता है !’’
‘‘होता है, बहुत कुछ होता है; सबके यहां होता है। इसमें राजा-महाराजा होने जैसा क्या है ?’’
‘‘होता होगा, बीबी जी।’’
‘‘अरे, होता है, कमलू ! होता है, समझे, वो विनोद है जो...!’’
वह अचानक रुक गई।
‘‘हां, बीबी जी, वो विनोद... !’’
‘‘चुप रह, कौन विनोद, जैसे तू जानता हो...हां, भूल जा यह प्रसंग है। चल होता है मान ले, रूपमती के साथ भी यही हुआ। फिर...?’’
‘‘फिर बीबी जी, वह धर्मपुरी आ गई। अब ये पूछियो नाय कि धर्मपुरी कैसे आई। आ गई, सो आ गई।’’
कमलू की बात पर वह खूब जोर से हंसी। हंसी तो हंसती रही। बहुत देर हंसने के बाद जब पेट में बल पड़ने लगे तो मुस्कराकर चंचल ढंग से बोली, ‘‘समझदार है तू। बहुत समझदार।’’
कमलू शरमा-सा गया। उसमें शरमाने लायक कुछ नहीं था, पर जाने क्यों उसके चेहरे पर शरम उतर ही आई। मुसीबत उसके साथ यह कि वो न हंस सके और न कुछ कह सके। गाइड होने की विडम्बना यूं झेलनी पड़ती है जैसे बहेलियों के जाल में पंछियों को मुक्ति नहीं।
‘‘हां तो बीबी जी, धर्मपुरी में मालवे का सुलतान बाजबहादुर शिकार खेलने के लिए आया था। वहीं नर्मदा के किनारे उसका और रूपमती का आमना-सामना हुआ। एक ने एक राग कसा, दूसरे ने दूसरा। कसते-कसते बस, बीबी जी, कस ही गए दोनों। रूपमती रही होगी कोई नादान बच्ची 16 साल की। बाज 50 का था। पर इश्क-मोहब्बत हो तो उमर क्या होती है; मान की मारी रूपमती को ठौर तो मिला। प्रण की पूरी कि नर्मदा के दर्शन जब तक न हों तिनका भी मुंह में न जाए।
वर्षों दोनों रहे...साथ तो थे लेकिन रहते थे, अलग-अलग !
कमलू कहानी में खो गया था। उनकी कार जहाज महल, हिंडोला महल, अशर्फी महल और न जाने कहां-कहां से गुजरती जा रही थी। कमलू थोड़ा खुल गया था। वह कहे जा रहा था–बादशाह शेरशाह सूरी के पास तक बाजबहादुर और रूपमती की प्रेम-कहानी पहुंच गई। बस, फिर क्या था...सवा शेर ! बाजबहादुर का बाप सुजात खां सूबेदार था। शेरशाह सूरी का दोस्त था। सुजात खाँ के बाद मलिक बाज सूबेदार बना। सारी मालवा घाटी उसके हाथ आ गई। वहीं मलिक बाज, बाजबहादुर कहलाया और उसने सारी घाटी पर कब्जा कर लिया और बादशाह बन बैठा। बाद में आदम खान वहां आन पहुंचा। बाजबहादुर लड़ाका था। उसने उसे रोका। लड़ाई हुई, घमासान लड़ाई...लेकिन लड़ाई में बाज मारा गया। तब आदम खान धोखेबाज निकला। वह पहुंचा रूपमती के पास। आदम खान को भी संगीत से प्रेम था, सो रूपमती ने उसका सम्मान-स्वागत किया।
रूपमती कविताएं लिखती थी, उसकी हर कविता में रागात्मकता थी। कवि को क्या चाहिए, कोई कहे, यही न। सुन्दर गला हो तो सोने में सुहागा ! रूपमती के स्वरचित स्वर फूट पड़े–
‘हो सकता है...’ अचानक उसे अपने पापा की याद आ गई। श्याम बाबू अब भी सो रहे होंगे या करवटें बदल रहे होंगे !
सुन्दर चेहरों का एक सिलसिला उसके सामने से घूम गया–एक से एक खूबसूरत कमसिनें। तब वह बच्ची थी, अक्सर बस्ता लिए एम्बेसेडर कार में स्कूल जाती थी। एक के बाद एक कितनी खूबसूरत लड़कियां मिली थीं बंगले के द्वार तक पहुंचते-पहुंचते। सब मुस्कुराकर उसकी ओर देखतीं। कोई उसके सिर पर हाथ फेर देती। वह बिना कुछ कहे आगे बढ़ जाती। उसे मालूम है, पापा का दरबार लगेगा अभी से और आधी रात गए तक; पापा को फुर्सत नहीं मिलेगी।
वह नीचे उतर आई।
गाइड के साथ बाजबहादुर के महल की ओर कार चल पड़ी।
‘‘बीबी जी,’’ गाइड ने बताया, ‘‘कल्याण राग में जब रूपमती गाती थी तो बाज बहादुर भूप राग छेड़ देता था। रागों की दुनिया भी अजीब है। आगे चलकर जब रूप और बाज एक हुए तो दोनों का राग ही बदल गया। एक नया राग बना–भूप कल्याण राग।’’
‘‘अजीब नहीं, रागों से मिलकर पूरी देह की शिराएं तार-तार हो जाती हैं ! समझे !’’ रूपाली ने सांप की तरह अपनी पूरी देह मरोड़ते हुए कहा।
‘‘होती होंगी, बीबी जी !’’
‘‘होती होंगी नहीं, होती हैं। मुझे भी संगीत का शौक है !’’
‘‘क्या गाती हैं आप ?’’
‘‘राग यमन।’’
‘‘वाह बीबी जी, कमाल की हैं आप, तभी तो मैं सोच रहा था कि इन वीरान पत्थरों में इतनी गहरी डूब कैसे गई हैं आप !’’
‘‘रूपमती कहां की थी, कमलू ?’’
‘‘बहुत दूर नहीं है यहां से वह जगह। बड़ी दुःखियारी थी बेचारी। चंदेरी के जमींदार मान से रूपमती की शादी हुई थी ’’
‘‘शादी हुई थी ?’’
‘‘हां बीबी जी, ज्यादा दिन शादी नहीं चल सकी !’’
‘‘क्या हुआ ?’’
‘‘हम गरीब आदमी क्या जानें। राजा-महाराजाओं के यहां क्या होता है !’’
‘‘होता है, बहुत कुछ होता है; सबके यहां होता है। इसमें राजा-महाराजा होने जैसा क्या है ?’’
‘‘होता होगा, बीबी जी।’’
‘‘अरे, होता है, कमलू ! होता है, समझे, वो विनोद है जो...!’’
वह अचानक रुक गई।
‘‘हां, बीबी जी, वो विनोद... !’’
‘‘चुप रह, कौन विनोद, जैसे तू जानता हो...हां, भूल जा यह प्रसंग है। चल होता है मान ले, रूपमती के साथ भी यही हुआ। फिर...?’’
‘‘फिर बीबी जी, वह धर्मपुरी आ गई। अब ये पूछियो नाय कि धर्मपुरी कैसे आई। आ गई, सो आ गई।’’
कमलू की बात पर वह खूब जोर से हंसी। हंसी तो हंसती रही। बहुत देर हंसने के बाद जब पेट में बल पड़ने लगे तो मुस्कराकर चंचल ढंग से बोली, ‘‘समझदार है तू। बहुत समझदार।’’
कमलू शरमा-सा गया। उसमें शरमाने लायक कुछ नहीं था, पर जाने क्यों उसके चेहरे पर शरम उतर ही आई। मुसीबत उसके साथ यह कि वो न हंस सके और न कुछ कह सके। गाइड होने की विडम्बना यूं झेलनी पड़ती है जैसे बहेलियों के जाल में पंछियों को मुक्ति नहीं।
‘‘हां तो बीबी जी, धर्मपुरी में मालवे का सुलतान बाजबहादुर शिकार खेलने के लिए आया था। वहीं नर्मदा के किनारे उसका और रूपमती का आमना-सामना हुआ। एक ने एक राग कसा, दूसरे ने दूसरा। कसते-कसते बस, बीबी जी, कस ही गए दोनों। रूपमती रही होगी कोई नादान बच्ची 16 साल की। बाज 50 का था। पर इश्क-मोहब्बत हो तो उमर क्या होती है; मान की मारी रूपमती को ठौर तो मिला। प्रण की पूरी कि नर्मदा के दर्शन जब तक न हों तिनका भी मुंह में न जाए।
वर्षों दोनों रहे...साथ तो थे लेकिन रहते थे, अलग-अलग !
कमलू कहानी में खो गया था। उनकी कार जहाज महल, हिंडोला महल, अशर्फी महल और न जाने कहां-कहां से गुजरती जा रही थी। कमलू थोड़ा खुल गया था। वह कहे जा रहा था–बादशाह शेरशाह सूरी के पास तक बाजबहादुर और रूपमती की प्रेम-कहानी पहुंच गई। बस, फिर क्या था...सवा शेर ! बाजबहादुर का बाप सुजात खां सूबेदार था। शेरशाह सूरी का दोस्त था। सुजात खाँ के बाद मलिक बाज सूबेदार बना। सारी मालवा घाटी उसके हाथ आ गई। वहीं मलिक बाज, बाजबहादुर कहलाया और उसने सारी घाटी पर कब्जा कर लिया और बादशाह बन बैठा। बाद में आदम खान वहां आन पहुंचा। बाजबहादुर लड़ाका था। उसने उसे रोका। लड़ाई हुई, घमासान लड़ाई...लेकिन लड़ाई में बाज मारा गया। तब आदम खान धोखेबाज निकला। वह पहुंचा रूपमती के पास। आदम खान को भी संगीत से प्रेम था, सो रूपमती ने उसका सम्मान-स्वागत किया।
रूपमती कविताएं लिखती थी, उसकी हर कविता में रागात्मकता थी। कवि को क्या चाहिए, कोई कहे, यही न। सुन्दर गला हो तो सोने में सुहागा ! रूपमती के स्वरचित स्वर फूट पड़े–
मारो थोड़े, राग मान
आलीजा मैं कई न मांगू राज।
चांदनी न मांगूं सोनूं न मांगूं
तांबो मांगू तो तलाक (कसम)
बाई सारू बीरो मांगूं
म्हारी चुड़ीला री पतराख।
आलीजा मैं कई न मांगू राज।
चांदनी न मांगूं सोनूं न मांगूं
तांबो मांगू तो तलाक (कसम)
बाई सारू बीरो मांगूं
म्हारी चुड़ीला री पतराख।
रूपमती बाजबहादुर के मारे जाने से बिन पानी मछली की तरह तड़प रही थी।
बोली–
धीत चंदेरी मन मालवो
हियो हाड़ाति के माय
सेज बिछाऊ रणतंभौंर में
तौ पौंडू मांडू पाय।
हियो हाड़ाति के माय
सेज बिछाऊ रणतंभौंर में
तौ पौंडू मांडू पाय।
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